मिटाने के लिए दिन को अँधेरा रोज़ आता है उजाला बाँटने फिर भी सवेरा रोज़ आता है अभी भी प्यास धरती की उसे काफ़ी नहीं लगती बरसता ही नहीं, बादल घनेरा रोज़ आता है कभी अपने लिए दो-चार पल जीना नहीं चाहा तभी सबके लबों पर नाम तेरा रोज़ आता है प्रवासी पंछियों को प्यार दो, इनको डराओ मत हज़ारों मील चल कर कोई डेरा रोज़ आता है ? कटे उस पेड़ को तो हो गए हफ़्तों मगर अब भी परिन्दा ढूँढने अपना बसेरा रोज़ आता है रचनाकार = ओमप्रकाश यती