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Showing posts from February, 2012

मिटाने के लिए दिन को अँधेरा रोज़ आता है

मिटाने के लिए दिन को अँधेरा रोज़ आता है उजाला बाँटने फिर भी सवेरा रोज़ आता है अभी भी प्यास धरती की उसे काफ़ी नहीं लगती बरसता ही नहीं, बादल घनेरा रोज़ आता है कभी अपने लिए दो-चार पल जीना नहीं चाहा तभी सबके लबों पर नाम तेरा रोज़ आता है प्रवासी पंछियों को प्यार दो, इनको डराओ मत हज़ारों मील चल कर कोई डेरा रोज़ आता है ? कटे उस पेड़ को तो हो गए हफ़्तों मगर अब भी परिन्दा ढूँढने अपना बसेरा रोज़ आता है रचनाकार = ओमप्रकाश यती